दिखाई देती है जो शक्ल वो बनी ही न हो
दिखाई देती है जो शक्ल वो बनी ही न हो
अजब नहीं कि कहानी कही गई ही न हो
जो खो चुका है वही अब हो मेरा सरमाया
जो मिल गया है मुझे वो मिरी कमी ही न हो
लिखा ही रह न गया हो कहीं मिरा क़िस्सा
गुज़ार दी है जो वो मेरी ज़िंदगी ही न हो
है कौन जिस की हो तहरीर इस क़दर सफ़्फ़ाक
ये ज़िंदगी मिरी अपनी लिखी हुई ही न हो
दिखाई देता भी है इक तिलिस्म और अगर
मैं जिस में देख रहा हूँ वो रौशनी ही न हो
वहाँ से ख़्वाब कोई और ले उड़ा हो उसे
मिरी निगाह तिरी आँख में रुकी ही न हो
ख़ुदा-ए-दहर मिरा ही शुऊर है 'काशिफ़'
तो काएनात की साज़िश कहीं मिरी ही न हो
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