बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा
बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा
वो मैं कि आतिश ओ आहन में जिस ने सर रक्खा
मैं वो हूँ जिस ने तआ'क़ुब में अपने मौत रखी
और अपने सर को सदा उस की मार पर रक्खा
नशात ओ फ़त्ह मिरी दस्तरस में थे लेकिन
किताब-ए-उम्र में दुख-दर्द बेश-तर रक्खा
मिले हुए थे मुझे चाहतों के दर कितने
मगर मैं वो कि हवाओं पे मुस्तक़र रक्खा
बहुत से लोग मिरे वास्ते थे दस्त-कुशा
मगर नज़र में तिरा ही दयार-ओ-दर रक्खा
कभी हुई ही नहीं मुझ को बे-घरी महसूस
ख़ुद अपने पाँव पे जब से है अपना घर रक्खा
गवाह हैं मिरे मिसरों के बस्त-ओ-दर 'काशिफ़'
चुना जो हर्फ़ उसे कर के बारवर रक्खा
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