कुछ तिरे नाज़-ओ-सितम और उठाना चाहे
कुछ तिरे नाज़-ओ-सितम और उठाना चाहे
दिल मिरा अक़्ल से फिर आँख चुराना चाहे
अपने हालात कोई मुझ को सुनाना चाहे
और वो इक बात जो मुझ से ही छुपाना चाहे
मेरी ख़्वाहिश कि तेरी याद से ग़ाफ़िल न रहूँ
फ़िक्र-ए-दुनिया तेरी यादों को मिटाना चाहे
ज़ेहन दुनिया की हक़ीक़त को समझने पे मुसिर
दिल कि बस ख़्वाबों की बस्ती में ठिकाना चाहे
मैं अकेला तो नहीं उस की अदा का महसूर
कुछ सबब है के उसे सारा ज़माना चाहे
जिस को दुनिया से है आशुफ़्ता-मिज़ाजी का गिला
वो भी इस आलम-ए-फ़ानी से न जाना चाहे
हम ने ख़ालिक़ की रज़ा पर कहाँ तोली हर बात
बस वही करते हैं जो नफ़्स कराना चाहे
कौन पहचाने है 'शारिब' तुझे इस वादी में
बिन तआ'रुफ़ तो कोई याँ से न जाना चाहे
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