अक़्ल की जान पर बन आई है
अक़्ल की जान पर बन आई है
इश्क़ से ज़ोर-आज़माई है
हुस्न-ए-ज़ा है जमाल का पिंदार
हुस्न-ए-पिंदार ख़ुद-नुमाई है
लाजवंती को है गुमान-ए-नज़र
हम ने देखा नहीं लजाई है
जिंस-ए-दिल का न था कोई गाहक
आप ने किस लिए चुराई है
हाथ यारब दुआ में फैलाना
क़त-ए-एहसास-ए-ना-रसाई है
क़हर से अख़्ज़ भाप की ताक़त
हुस्न से वस्फ़-ए-कहरुबाई है
ढूँढती हैं वो मुन्फ़इल नज़रें
दाद महफ़िल से उठ के पाई है
इश्क़ क्या जुर्म है कि इख़्फ़ा को
आप ने मुश्किल ये बनाई है
कह रही है हिकायत-ए-तैमूर
लंग उज़्र-ए-शिकस्ता-पाई है
है हमारे लिए ख़ुदा काफ़ी
आप के वास्ते ख़ुदाई है
ख़ल्क़ के हुस्न ख़ल्क़ से बेहतर
आप की वज़ा-ए-कज-अदाई है
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