बदल के हम ने तरीक़ा ख़त-ओ-किताबत का
बदल के हम ने तरीक़ा ख़त-ओ-किताबत का
छुपा लिया है ज़माने से राज़ उल्फ़त का
पुराना ज़ख़्म नया हो गया तो क्या होगा
न फेंको तीर हमारी तरफ़ को नफ़रत का
बहार आई थी चेहरे पे चार दिन के लिए
नशा है आज भी आँखों में उस लताफ़त का
कभी तो आओ हमारे ग़रीब-ख़ाने पर
हमें भी दीजियो मौक़ा जनाब ख़िदमत का
बहुत सँभाल के रखना उसे हिफ़ाज़त से
खिलौना टूट न जाए मिरी मोहब्बत का
ये मुश्त-ए-ख़ाक जो इंसान की हक़ीक़त है
तमाशा देख रहा हूँ मैं इस की फ़ितरत का
हमारे ज़र्फ़ को नज़रों से तोल कर 'आरिफ़'
उठा रहा है वो तूफ़ान इक क़यामत का
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