इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है
ज़र्द पत्तों पे मत चले कोई
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कल पहली बार उस से इनायत सी हो गई
फ़क़ीह-ए-शहर से कुछ ख़ास दुश्मनी तो नहीं
वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब
इस पल दो पल की हस्ती में
राहत के वास्ते न रिफ़ाक़त के वास्ते
अपने लिए भी कोई रिआयत रवा नहीं
कुछ मारके हमारे भी हम तक ही रह गए
जो माल उस ने समेटा था वो भी सारा गया
जैसे कि इक फ़्रेम हो तस्वीर के बग़ैर
मिट्टी तिरे महकने से मुझ को गुमान है
तुझ को ही सोचता रहूँ फ़ुर्सत नहीं रही