बोली लगी मता-ए-हुनर की तो अहल-ए-फ़न
जल्दी में अपने ख़्वाब भी नीलाम कर गए
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जो माल उस ने समेटा था वो भी सारा गया
वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब
ये कैसे ख़ौफ़ हमें आज फिर सताने लगे
जैसे कि इक फ़्रेम हो तस्वीर के बग़ैर
कुछ मारके हमारे भी हम तक ही रह गए
क्यूँ मिल रही है उन को सज़ा चीख़ती रही
कल पहली बार उस से इनायत सी हो गई
तुझ को ही सोचता रहूँ फ़ुर्सत नहीं रही
राहत के वास्ते न रिफ़ाक़त के वास्ते
फ़क़ीह-ए-शहर से कुछ ख़ास दुश्मनी तो नहीं
इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है
इस पल दो पल की हस्ती में