पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
हम अजब सूरत-ए-हालात में उलझे हुए हैं
ख़त्म होने का नहीं मारका-ए-इश्क़-ओ-हवस
मसअले सारे मफ़ादात में उलझे हुए हैं
किस ख़सारे में नज़र है कि सिमट जाती है
कुछ अभी दाएरा-ए-ज़ात में उलझे हुए हैं
इन में तो मुझ से ज़ियादा है परेशाँ-नज़री
आईने शहर-ए-कमालात में उलझे हुए हैं
इस पे दावा भी कि ये कार-ए-मसीहाई है
सारे अज़हान ख़ुराफ़ात में उलझे हुए हैं
कुर्रा-ए-ख़ाक पे पड़ते ही नहीं उन के क़दम
दीदा-वर सैर-ए-तिलिस्मात में उलझे हुए हैं
नूर-ए-मुतलक़ की है तश्बीह न तमसील मगर
हम इशारात ओ किनायात में उलझे हुए हैं
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