न जाने रौज़न-ए-दीवार क्या जादू जगाता है
न जाने रौज़न-ए-दीवार क्या जादू जगाता है
तलत्तुफ़ से सँभलता है क़दम या डगमगाता है
ये तम्हीद-ए-निगाह-ए-शौक़ है दो-आतिशा ऐ दिल
इस आलम में इक आलम और आईना दिखाता है
कहाँ का इश्क़ लेकिन ये मुझे महसूस होता है
कि मेरा हाथ दोश-ए-नाज़नीं पर थरथराता है
कहाँ पहले था ये मौसम है सब तर्ज़-ए-ख़िराम उस का
हवाओं में गुलाबी बाग़ में ख़ुशबू उड़ाता है
मिज़ाजों की हम-आहंगी भी अक्सर शाक़ होती है
उगलती हैं मशीनें आग सूरज मुस्कुराता है
तुयूर-ए-ज़मज़मा-पर्दाज़ की पहचान होती है
वो ताइर क्या जो आवाज़ों से आवाज़ें मिलाता है
उसी पर जान देते हैं जिसे बे-मेहर कहते हैं
जो हम को भूल जाता है वो अक्सर याद आता है
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