कुछ और कोई अब्र-ए-बहारी को न समझे
उड़ता है ये रूमाल मिरे दीदा-ए-तर का
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कट गई रात सुब्ह होती है
सीने में आग आँख सू-ए-दर लगी रहे
होश का अंदाज़ा बे-होशी में है
नहीं दो क़ुब्बा-ए-पिस्तान शोख़-ओ-शंग सीने पर
वो बज़्म-ए-ग़ैर में बा-सद-वक़ार बैठे हैं
अपना दुनिया से सफ़र ठहरा है
रंगत उसे पसंद है ऐ नस्तरन सफ़ेद
थी नज़ारे की घात आँखों में
हम ने जो उस की मिदहतों से कान भर दिए
अपनी आँखों से जो वो ओझल है
हिज्र है दिल में ख़ाक उड़ती है