ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
वो ज़िंदगी जो सर-ए-रहगुज़ार गुज़री है
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गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
मेरा जीना है सेज काँटों की
नग़्मा ऐसा भी मिरे सीना-ए-सद-चाक में है
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है