ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
दयार-ए-क़ल्ब से बेगाना-वार गुज़री है
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वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
कहते थे तुझी को जान अपनी
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है