वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
ये मोहब्बत की अदा है मुझे मालूम न था
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शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है