वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
बेच दूँ दौलत-ए-ईमाँ तो मज़ा आ जाए
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ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
चाँद सितारों से क्या पूछूँ कब दिन मेरे फिरते हैं
कहते थे तुझी को जान अपनी
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
मेरा जीना है सेज काँटों की
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी