तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
जो ये कहते हैं वफ़ा पैरहन-ए-चाक में है
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वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
मुझे धोका हुआ कि जादू है
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं