सुबू उठा कि ये नाज़ुक मक़ाम है साक़ी
न अहरमन है न यज़्दाँ है देखिए क्या हो
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ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
ये अर्ज़-ए-शौक़ है आराइश-ए-बयाँ भी तो हो
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
मेरा जीना है सेज काँटों की
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'