साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
महफ़िल-अफ़रोज़ हो इंसाँ तो मज़ा आ जाए
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चैन पड़ता है दिल को आज न कल
ये अर्ज़-ए-शौक़ है आराइश-ए-बयाँ भी तो हो
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
मेरा जीना है सेज काँटों की
या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था