मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
कि अभी इश्क़ में कुछ काम हैं करने वाले
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इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
दिल का मोआ'मला निगह-ए-आशना के साथ
जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत