कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
गिराँ है अर्ज़-ए-तमन्ना तो बार बार न कर
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मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले