कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
कितने बादल गुहर-अफ़शाँ गुज़रे
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ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
दिल का मोआ'मला निगह-ए-आशना के साथ
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का