कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
कोई जवाज़ तो हो लुत्फ़-ए-बे-सबब के लिए
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ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
कहते थे तुझी को जान अपनी
मेरा जीना है सेज काँटों की
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे