जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
शौक़-ए-दीदार का आलम वो कहाँ है कि जो था
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आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
सुबू उठा कि ये नाज़ुक मक़ाम है साक़ी
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
मेरा जीना है सेज काँटों की
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
मुझे धोका हुआ कि जादू है
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार