इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
लब-ए-ख़ुश-गू-ए-हवस महव-ए-बयाँ है कि जो था
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दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
कहते थे तुझी को जान अपनी
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
मुझे धोका हुआ कि जादू है
वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में