ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
वस्फ़-ए-ख़ूबाँ ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था
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जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
मुझे धोका हुआ कि जादू है
आज आया है अपना ध्यान हमें
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था