इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था
तब से सुंदर सुंदर सपने मन को घेरे फिरते हैं
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दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
मेरा जीना है सेज काँटों की
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए