दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
एक जीने का सलीक़ा दिल-ए-बेबाक में है
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चैन पड़ता है दिल को आज न कल
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
मुझे धोका हुआ कि जादू है
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था
या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार