दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
आँख में फैलता गया काजल
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इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
सुबू उठा कि ये नाज़ुक मक़ाम है साक़ी
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'