ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
मरने का है मक़ाम या जीने का महल
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यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल