आज आया है अपना ध्यान हमें
आज दिल के नगर से गुज़रे हैं
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आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
मुझे धोका हुआ कि जादू है
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब