समाअतों में बहुत दूर की सदा ले कर
समाअतों में बहुत दूर की सदा ले कर
भटक रहा हूँ मैं इक ख़्वाब का पता ले कर
तुम्हारी याद बरस जाए तो थकन कम हो
कहाँ कहाँ मैं फिरूँ सर पे अब घटा ले कर
तमाम हिज्र के मारों सा शब के दरिया में
मैं डूब जाऊँ वही चाँद का घड़ा ले कर
तुम्हारा ख़्वाब भी आए तो नींद पूरी हो
मैं सो तो जाऊँगा नींद आने की दवा ले कर
मैं ख़ुद से दूर निकलता गया उधड़ता हुआ
ख़ुद अपनी ज़ात से निकला हुआ सिरा ले कर
तमाम शहर की तामीर धूप ने की है
मिलेगी छाँव भी उस का ही आसरा ले कर
बचा है मुझ में बस इक आख़िरी शरर 'आतिश'
कोई तो आए तिरी याद की हवा ले कर
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