रंग होने लगे ज़ाहिर मेरे
ध्यान रख कुछ तो मुसव्विर मेरे
यूँ न आँखों से हुआ कर ओझल
बुझने लगते हैं मनाज़िर मेरे
काम आई न ख़मोशी मेरी
राज़ खुल ही गए आख़िर मेरे
गूँज उठा नग़्मों से आँगन मेरा
लौट आए सभी ताइर मेरे
Allama Iqbal
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हर एक सम्त इशारे थे और रस्ता भी
कोई शय है जो सनसनाती है
रौशनी क्या पड़ी है कमरे में
धूप में बैठने के दिन आए
सुनहरी धूप खिली है कई दिनों के ब'अद
हर एक डूबता मंज़र दिखाई देता है