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ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं - सुल्तान अख़्तर कविता - Darsaal

ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं

ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं

अज़्मत-ए-रफ़्ता के आदाब लिए फिरते हैं

देख कर उन को लरज़ जाती है हर मौज-ए-बला

अपनी कश्ती में जो गिर्दाब लिए फिरते हैं

तीर कितने हैं लईं और तिरे तरकश में

देख हम सीना-ए-बे-ताब लिए फिरते हैं

देखना उन को भी डस लेगी कड़े वक़्त की धूप

वो जो कुछ ख़्वाहिश-ए-शादाब लिए फिरते हैं

अपनी तहज़ीब का अब कोई तलबगार नहीं

बे-सबब हम पर-ए-सुरख़ाब लिए फिरते हैं

मेरा भी कासा-ए-ताबीर है ख़ाली ख़ाली

वो भी आँखों में कई ख़्वाब लिए फिरते हैं

तीरगी शहर-ए-ग़ज़ालाँ से निकलती ही नहीं

लाख वो सूरत-ए-महताब लिए फिरते हैं

ये तो सदक़ा है 'हुसैन-इब्न-ए-अली' का 'अख़्तर'

तिश्नगी हम जो सर-ए-आब लिए फिरते हैं

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In Hindi By Famous Poet Sultan Akhtar. is written by Sultan Akhtar. Complete Poem in Hindi by Sultan Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.