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तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ - सुल्तान अख़्तर कविता - Darsaal

तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ

तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ

कि ख़ाक बैठ गई अब सफ़र तमाम हुआ

बस इक सुकूत बिखरता हुआ है चारों तरफ़

हर एक मार्का-ए-ख़ैर-ओ-शर तमाम हुआ

कहीं सकूँ न मिला इश्क़ से फ़रार के बाद

किसी तरह न मिरा दर्द-ए-सर तमाम हुआ

घरों में ढलती हुई रात थक के बैठ गई

कि अब फ़साना-ए-दीवार-ओ-दर तमाम हुआ

सब अपनी अपनी ख़बर ले रहे हैं वक़्त-ए-ज़वाल

दिलों से बे-ख़बरी का असर तमाम हुआ

फिर उस के रू-ब-रू हम दिल की बात कह न सके

हमारा हौसला बार-ए-दिगर तमाम हुआ

हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है

हर एक क़िस्सा तिरे नाम पर तमाम हुआ

न कोई बात मुकम्मल हुई मिरी 'अख़्तर'

न कोई काम मिरा सर-ब-सर तमाम हुआ

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In Hindi By Famous Poet Sultan Akhtar. is written by Sultan Akhtar. Complete Poem in Hindi by Sultan Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.