साअत-ए-मर्ग-ए-मुसलसल हर नफ़स भारी हुई
साअत-ए-मर्ग-ए-मुसलसल हर नफ़स भारी हुई
फिर फ़ज़ा-ए-जाँ पे सदियों की थकन तारी हुई
ख़ानमाँ-बर्बाद यादें दस्तकें देने लगीं
जब कभी अपनी तरफ़ बढ़ने की तय्यारी हुई
उस ने अपने आप को हम पर मुनव्वर कर दिया
फिर भी चश्म-ए-शौक़ में रौशन न चिंगारी हुई
अब किसी की भी नज़र उठती नहीं सू-ए-फ़लक
हम ज़मीं वालों को आख़िर कैसी बीमारी हुई
वक़्त की दलदल में ख़ुश-आहंग लम्हे धँस गए
यानी हर साअत सुकूत-ए-शब की है मारी हुई
इस तरह बे-कैफ़ मौसम तो कभी गुज़रा न था
फूल ही बरसे न तो अब के शरर-बारी हुई
अब दयार-ए-दिल में 'अख़्तर' हू का आलम भी नहीं
किस अज़िय्यत-नाक मौसम से मिरी यारी हुई
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