मिरे चारों तरफ़ ये साज़िश-ए-तस्ख़ीर कैसी है
मिरे चारों तरफ़ ये साज़िश-ए-तस्ख़ीर कैसी है
लरज़ता रहता हूँ या रब तिरी तामीर कैसी है
कभी तो पूछती मुझ से सबब मेरी उदासी का
हमेशा हँसती रहती है तिरी तस्वीर कैसी है
अगर उस के करम की धूप से महरूम रहता हूँ
तो फिर ये ख़ाना-ए-दिल में मिरे तनवीर कैसी है
हम अपने आप में आज़ाद हैं लेकिन ख़ुदावंदा
हमारे दस्त-ओ-पा में वक़्त की ज़ंजीर कैसी है
बचाता है मुझे तीर ओ सिनाँ से कौन रोज़ ओ शब
जो मुझ को काटती रहती है वो शमशीर कैसी है
ख़लाओं में मुनव्वर चार जानिब अक्स है किस का
जो सतह-ए-आब पर रौशन है वो तस्वीर कैसी है
अगर तुझ से मिरी आवारगी देखी नहीं जाती
तो फिर पामाल करने में मुझे ताख़ीर कैसी है
ठहरता ही नहीं 'अख़्तर' कोई लम्हा मसर्रत का
गुज़रती ही नहीं ये साअत-ए-दिल-गीर कैसी है
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