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ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे - सुल्तान अख़्तर कविता - Darsaal

ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे

ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे

फिर भी हम उन की इताअत में गिरफ़्तार रहे

ठोकरें खा के भी शाइस्ता-मिज़ाजी न गई

फ़ाक़ा-मस्ती में भी हम साहिब-ए-दस्तार रहे

अपनी सूरत से हिरासाँ है हर इक शख़्स यहाँ

कौन इस शहर में अब आइना-बरदार रहे

आते जाते हुए मौसम को दुआ देते रहो

कम से कम शाख़-ए-तमन्ना तो समर-दार रहे

दस्तकें होंगी दर-ए-दिल पे कोई आएगा

रात भर हम इसी उम्मीद में बेदार रहे

दर-ब-दर फिरते रहे ख़ाना-ब-दोशों की तरह

ज़िंदगी हम तिरी तहवील में बे-कार रहे

ख़ाक क्यूँ उड़ने लगी राह-ए-जुनूँ में 'अख़्तर'

रसन-ओ-दार का कोई तो तलबगार रहे

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In Hindi By Famous Poet Sultan Akhtar. is written by Sultan Akhtar. Complete Poem in Hindi by Sultan Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.