हर-चंद अपने अक्स का दिल दर्दमंद हो
हर-चंद अपने अक्स का दिल दर्दमंद हो
आईने के लबों पे अगर ज़हर-ए-ख़ंद हो
बे-मेहर आफ़्ताब का दरवाज़ा बंद हो
आँधी ज़रा थमे तो घटा सर-बुलंद हो
हर लम्हा उस की मदह-सराई न कीजिए
मुमकिन है ऐसी बात उसे ना-पसंद हो
हर गाम हौसलों का यही मुद्दआ' रहा
गुमराह ज़िंदगी की मसाफ़त दो-चंद हो
'अख़्तर' मैं इख़्तिलाफ़ का क़ाइल नहीं मगर
अहबाब का मिज़ाज ही जब शर-पसंद हो
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