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हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी - सुल्तान अख़्तर कविता - Darsaal

हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी

हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी

हमारे बीच दीवार-ए-अना बनती हुई सी

लरज़ती काँपती मिस्ल-ए-हया सिमटी हुई सी

मिरी जानिब बढ़ी उस की सदा सहमी हुई सी

वही मंज़र लरज़ता है निगाहों में अभी तक

दरीचे हाथ फैलाए हवा रूठी हुई सी

तिरे क़दमों की आहट रहगुज़र-दर-रहगुज़र रौशन

तिरी आमद की ख़ुश्बू जा-ब-जा बिखरी हुई सी

सभी मानूस चेहरे अजनबी से लग रहे हैं

हमें जीने नहीं देगी फ़ज़ा बदली हुई सी

निगाहों के उफ़ुक़ हैरानियों के अब्र में गुम

कोई शय आईने में रूनुमा होती हुई सी

न जाने किस तबाही की तरफ़ ले जाएगी अब

हमारी ज़िंदगी बे-साख़्ता बढ़ती हुई सी

मुझे मुझ से अलग करने पे आमादा है 'अख़्तर'

मिरी पहचान मुझ से आश्ना होती हुई सी

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In Hindi By Famous Poet Sultan Akhtar. is written by Sultan Akhtar. Complete Poem in Hindi by Sultan Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.