मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से
समझ लेता हूँ तेरी अन-कही भी
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शनाख़्त मिट गई चेहरे पे गर्द इतनी थी
इस घनी शब का सवेरा नहीं आने वाला
कुछ नहीं है तो ये अंदेशा ये डर कैसा है
शायरी मज़हर-ए-अहवाल-ए-दरूं है यूँ है
इक ख़ौफ़-ए-बे-पनाह है आँखों के आर-पार
मुद्दत हुई राहत भरा मंज़र नहीं उतरा
कोई दिया किसी चौखट पे अब न जलने का
बीमार सा है जिस्म-ए-सहर काँप रहा है
न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
रोज़ ओ शब इस सोच में डूबा रहता हूँ
दश्त में ये जाँ-फ़ज़ाँ मंज़र कहाँ से आ गए
कल रात मेरे साथ अजब हादिसा हुआ