न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
सफ़र का लुत्फ़ कड़ी दोपहर में रक्खा है
जुदाइयों के मनाज़िर हैं अब भी यादों में
बिछड़ते वक़्त का लम्हा नज़र में रक्खा है
बचा बचा के घनी छाँव को तिरी ख़ातिर
तमाम उम्र बदन के शजर में रक्खा है
तुम्हारे नाम को लिक्खा है पैकर-ए-गुल पर
तुम्हारी याद को ख़ुशबू के घर में रक्खा है
कभी सुकून से जीने नहीं दिया उस ने
वो एक इश्क़ का सौदा जो सर में रक्खा है
फिर एक बार लुटाना है कारवाँ दिल का
क़दम को फिर से तिरी रहगुज़र में रक्खा है
'ख़ुमार' किस ने किया फिर से दर-ब-दर मुझ को
ये किस ने मुझ को मुसलसल सफ़र में रक्खा है
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