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तस्कीन-ए-अना - सुलैमान अरीब कविता - Darsaal

तस्कीन-ए-अना

जब कोई क़र्ज़ सदाक़त का चुकाने के लिए

ज़हर का दुर्द-ए-तह-ए-जाम भी पी लेता है

अपना सर हँस के कटा देता है

ज़िंदगी जब्र सही जब्र-ए-मुसलसल ही सही

सहता है

और इस जब्र को सौ रंग अता करता है

हर्फ़ का सौत का सूरत का फ़ुसूँ-कारी का

मैं उसे देख के चुपके से खिसक जाता हूँ

ये तो मैं ख़ुद हूँ वो अहमक़ जिस की

अपनी रुस्वाई में तस्कीन-ए-अना होती है

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In Hindi By Famous Poet Sulaiman Areeb. is written by Sulaiman Areeb. Complete Poem in Hindi by Sulaiman Areeb. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.