क़ातिल-ए-बे-चेहरा
शराब पी के ये एहसास मुझ को होता है
कि जैसे मैं ही ख़ुदा हूँ
ख़ुदा का बेटा हूँ
ख़ुदाई जिस को चढ़ाती रही है सूली पर
शराब पी के ये एहसास मुझ को होता है
कि जैसे अर्सा-ए-पैकार-ए-हक़्क़-ओ-बातिल में
हमेशा मैं ही जो मज़हर रहा हूँ नेकी का
शिकस्त खाता रहा
पिया है ज़हर भी मैं ने कटाया है सर भी
बुझी न प्यास मगर ख़ंजर-ओ-सिनाँ की अभी
न जाने कितनी दफ़ा और क़त्ल होना है
मुझे ब-पास-ए-दिगर
शराब पी के ये एहसास मुझ को होता है
कि जैसे मैं ही ज़माने में एक क़ातिल हूँ
और ऐसा क़ातिल-ए-बे-चेहरा जिस को सदियों से
ज़माना ढूँड रहा है
मगर नहीं मिलता
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