नाज़-पर्वर्दा-ए-जहाँ तुम हो
नाज़-पर्वर्दा-ए-जहाँ तुम हो
दर्द-ओ-ग़म हो जहाँ जहाँ तुम हो
ये ज़मीं भी अगर नहीं मेरी
हाए क्यूँ ज़ेर-ए-आसमाँ तुम हो
मैं ने की थी शिकायत-ए-दरूँ
बे-सबब मुझ से बद-गुमाँ तुम हो
मैं ज़माने से ख़ुद समझ लेता
वक़्त के मेरे दरमियाँ तुम हो
फूटती है वहीं से दर्द की लय
पर्दा-ए-साज़ में जहाँ तुम हो
तुम को पा कर भी सोचता हूँ यही
क्या फ़क़त रंज-ए-राएगाँ तुम हो
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