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दस्त-बरदार हुआ मैं भी तलबगारी से - सुहैल अख़्तर कविता - Darsaal

दस्त-बरदार हुआ मैं भी तलबगारी से

दस्त-बरदार हुआ मैं भी तलबगारी से

अब कहीं जा के इफ़ाक़ा हुआ बीमारी से

ख़ाक में ख़ुद को मिलाया तो जड़ें पाई हैं

कैसे रोकेगा कोई मुझ को नुमूदारी से

टूट ही जाते हैं इख़्लास के पुतले आख़िर

सो मुझे बच के निकलना है अदाकारी से

अब भी कुछ चीज़ें हैं बाज़ार में जो आई नहीं

अब भी मुंकिर है कोई मेरी ख़रीदारी से

हम अकहरे कभी बर-वक़्त समझ पाते नहीं

काम कर जाता है चुप-चाप वो तहदारी से

दिल-ए-नादान उलट देता है अक्सर ये बिसात

अक़्ल यूँ चाल बहुत चलती है अय्यारी से

जब अचानक ही हर इक फ़ैसला होना है यहाँ

मुझ को भी कोई इलाक़ा नहीं तय्यारी से

सख़्त-जानी के मिले कितने ही एज़ाज़ मुझे

और मिलता भी क्या उम्मीद की बे-ज़ारी से

जलता ऊपर से हूँ अंदर से निखरता हूँ 'सुहैल'

ख़ुद को यूँ आग लगाता हूँ मैं फ़नकारी से

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In Hindi By Famous Poet Suhail Akhtar. is written by Suhail Akhtar. Complete Poem in Hindi by Suhail Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.