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सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं - सुहैल अहमद ज़ैदी कविता - Darsaal

सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं

सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं

क़रीब-ए-मर्ग ज़िंदगी के ख़्वाब देखता हूँ मैं

हवा ने हर्फ़-ए-सादा मेरे ज़ेहन से उड़ा लिया

तो अब हर एक बात पर किताब देखता हूँ मैं

बहार की सवारियों के हम-रिकाब क्यूँ रहे

ख़िज़ाँ का बर्ग-ओ-बार पर इताब देखता हूँ मैं

खड़ा हूँ नोक-ए-ख़ार पर गुमान-दर-गुमान पर

खुलेगा कब हक़ीक़तों का बाब देखता हूँ मैं

अजीब उस की सरवरी नई है शान हर घड़ी

बनों में शहर, शहर में सराब देखता हूँ मैं

नज़र-फ़रेब ढंग हैं सितमगरों के रंग हैं

निगह में क़हर हाथ में गुलाब देखता हूँ मैं

ग़ज़ल से छेड़-छाड़ को गुनाह जानता था मैं

मगर अब इस गुनाह में सवाब देखता हूँ मैं

'सुहैल' शाम ढल गई दुकान अपनी बढ़ गई

ज़रा सी रौशनी है और हिसाब देखता हूँ मैं

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In Hindi By Famous Poet Suhail Ahmed Zaidi. is written by Suhail Ahmed Zaidi. Complete Poem in Hindi by Suhail Ahmed Zaidi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.