सफ़र करो तो इक आलम दिखाई देता है
सफ़र करो तो इक आलम दिखाई देता है
क़द अपना पहले से कुछ कम दिखाई देता है
मैं ख़ुश्क शाख़-ए-ख़िज़ा पे यूँही नहीं बैठा
यहाँ से अब्र का परचम दिखाई देता है
मगर तना हुआ रहता है कम-नसीबों से
ये आसमाँ जो तुम्हें ख़म दिखाई देता है
हर एक हाथ में पत्थर कहाँ से आएँगे
तमाम शहर तो बरहम दिखाई देता है
ख़ुद अपने ज़ख़्म पे इतना हज़ीं न हो कि 'सुहैल'
सफ़-ए-अदू में भी मातम दिखाई देता है
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