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दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे - सुहैल अहमद ज़ैदी कविता - Darsaal

दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे

दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे

हम अपनी ही नज़र में ख़ता-कार से रहे

इक मरहला था ख़त्म हुआ दश्त-ए-ख़्वाब का

फिर उम्र भर जहाँ रहे बेज़ार से रहे

जुरअत किसी ने वादी-ए-वहशत की फिर न की

हम ख़स्ता-हाल आहनी दीवार से रहे

इक अक्स है जो साथ नहीं छोड़ता कभी

हम ता-हयात आइना-बरदार से रहे

हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना

आज़ाद लोग भी तो गिरफ़्तार से रहे

कार-ए-अज़ीम कब कोई क़ुदरत में था 'सुहैल'

हम बस उफ़ुक़ पे सुब्ह के आसार से रहे

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In Hindi By Famous Poet Suhail Ahmed Zaidi. is written by Suhail Ahmed Zaidi. Complete Poem in Hindi by Suhail Ahmed Zaidi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.