होता है मिरे दिल में हसीनों का गुज़र भी
इक अंजुमन-ए-नाज़ है अल्लाह का घर भी
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ख़राब-ए-दीद को यूँ ही ख़राब रहने दे
इसी आशिक़ी में पैहम हुई ख़ानुमाँ-ख़राबी
शौक़-ए-बुतान-ए-अंजुमन-आरा लिए हुए
दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे
उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है
जो कुछ हुआ सो हुआ अब सवाल ही क्या है