मोहब्बत किस क़दर सेहर-आफ़रीं मालूम होती है
मोहब्बत किस क़दर सेहर-आफ़रीं मालूम होती है
कि वो जो बात कह दें दिल-नशीं मालूम होती है
इलाही क्यूँ असर होता नहीं इन बे-वफ़ाओं पर
हमें तो बात अपनी दिल-नशीं मालूम होती है
दिल-ए-नादाँ ने खाए हैं मोहब्बत में फ़रेब इतने
कि उस काफ़िर की ''हाँ'' भी अब ''नहीं'' मालूम होती है
तिरे कूचे में आलम है ये अपनी ख़ाकसारी का
निशान-ए-सज्दा में पिन्हाँ जबीं मालूम होती है
फ़राग़त और क़यामत की फ़राग़त हम को जन्नत भी
किसी काफ़िर के कूचे की ज़मीं मालूम होती है
तबस्सुम आ गया उन के लबों पर हाल-ए-दिल सुन कर
हमारी दास्ताँ सेहर-आफ़रीं मालूम होती है
'तबस्सुम' किस की जल्वा-रेज़ियाँ हैं बज़्म-ए-इम्काँ में
कि जो शय है निगाहों में हसीं मालूम होती है
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