किसी में ताब-ए-अलम नहीं है किसी में सोज़-ए-वफ़ा नहीं है
किसी में ताब-ए-अलम नहीं है किसी में सोज़-ए-वफ़ा नहीं है
सुनाएँ किस को हिकायत-ए-ग़म कि कोई दर्द-आश्ना नहीं है
हम इंक़लाब-ए-फ़लक के हाथों बहुत सताए हुए हैं या-रब
ये नाला-ए-बे-कसी हमारा शिकायत-ए-नारवा नहीं है
हुजूम-ए-वारफ़्तगी के हाथों जो जाँ चली तो खुला ये उक़्दा
कि तार-ओ-पौद-ए-ख़याल-ए-दिलबर से रिश्ता-ए-जाँ जुदा नहीं है
कल उस बुत-बा-वफ़ा से मिल कर जो और बेताब हो गया दिल
हुआ ये ज़ाहिर कि रंज-ओ-ग़म की जहाँ में कोई दवा नहीं है
यही है अब आरज़ू 'तबस्सुम' कि दम निकल जाए आह करते
कि ताब-ए-इज़हार-ए-उलफ़त-ए-यार शेवा-ए-आश्ना नहीं है
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